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कंकाल-अध्याय -५०

कहने वाला बाथम था। उसके साथ भय-विह्वल घण्टी नाव पर चढ़ गयी। डाँड़े गिरा दिये गये। इधर नवाब का सिर कुचलकर जब विजय ने देखा, तब वहाँ घण्टी न थी, परन्तु एक स्त्री खड़ी थी। उसने विजय का हाथ पकड़कर कहा, 'ठहरो विजय बाबू!' क्षण-भर में विजय का उन्माद ठंडा हो गया। वह एक बार सिर पकड़कर अपनी भयानक परिस्थिति से अवगत हो गया। निरंजन दूर से यह कांड देख रहा था। अब अलग रहना उचित न समझकर वह भी पास आ गया। उसने कहा, 'विजय, अब क्या होगा?' 'कुछ नहीं, फाँसी होगी और क्या!' निर्भीक भाव से विजय ने कहा। 'आप इन्हें अपनी नाव दे दें और ये जहाँ तक जा सकें, निकल जायें। इनका यहाँ ठहरना ठीक नहीं।' स्त्री ने निरंजन से कहा। 'नहीं यमुना! तुम अब इस जीवन को बचाने की चिंता न करो, मैं इतना कायर नहीं हूँ।' विजय ने कहा। 'परन्तु तुम्हारी माता क्या कहेगीं विजय! मेरी बात मानो, तुम इस समय तो हट ही जाओ, फिर देखा जायेगा। मैं भी कह रहा हूँ, यमुना की भी यही सम्मति है। एक क्षण में मृत्यु की विभीषिका नाचने लगी! लड़कपन न करो, भागो!' निरंजन ने कहा। विजय को सोचते-विचारते और विलम्ब करते देखकर यमुना ने बिगड़कर कहा, 'विजय बाबू! प्रत्येक अवसर पर लड़कपन अच्छा नहीं लगता। मैं कहती हूँ, आप अभी-अभी चले जायें! आह! आप सुनते नही?' विजय ने सुना, अच्छा नहीं लगता! ऊँह, यह तो बुरी बात है। हाँ ठीक, तो देखा जायेगा। जीवन सहज में दे देने की वस्तु नहीं। और तिस पर भी यमुना कहती है-ठीक उसी तरह जैसे पहले दो खिल्ली पान और खा लेने के लिए, उसने कई बार डाँटने के स्वर में अनुरोध किया था! तो फिर!... विजय भयभीत हुआ। मृत्यु जब तक कल्पना की वस्तु रहती है, तब तक चाहे उसका जितना प्रत्याख्यान कर लिया जाए; यदि वह सामने हो। विजय ने देखा, यमुना ही नहीं, निरंजन भी है, क्या चिन्ता यदि मैं हट जाऊँ! वह मान गया, निरंजन की नाव पर जा बैठा। निरंजन ने रुपयों की थैली नाव वाले को दे दी। नाव तेजी से चल पड़ी। भण्डारी और निरंजन ने आपस में कुछ मंत्रणा की, और वे खून-अरे बाप रे! कहते हुए एक और चल पड़े। स्नान करने वालों का समय हो चला था। कुछ लोग भी आ चले थे। निरंजन और भण्डारी का पता नहीं। यमुना चुपचाप बैठी रही। वह अपने पिता भण्डारीजी की बात सोच रही थी। पिता कहकर पुकारने की उसकी इच्छा को किसी ने कुचल दिया। कुछ समय बीतने पर पुलिस ने आकर यमुना से पूछना आरम्भ किया, 'तुम्हारा नाम क्या है?' 'यमुना!' 'यह कैसे मरा 'इसने एक स्त्री पर अत्याचार करना चाहा था।' 'फिर 'फिर यह मारा गया।' 'किसने मारा 'जिसका इसने अपराध किया।' 'तो वह स्त्री तुम्हीं तो नहीं हो?' यमुना चुप रही। सब-इन्स्पेक्टर ने कहा, 'यह स्वीकार करती है। इसे हिरासत में ले लो।' यमुना कुछ न बोली। तमाशा देखने वालों का थोड़े समय के लिए मन बहलाव हो गया। कृष्णशरण को टेकरी में हलचल थी। यमुना के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की चर्चा हो रही थी। निरंजन और भण्डारी भी एक मौलसिरी के नीचे चुपचाप बैठे थे। भण्डारी ने अधिक गंभीरता से कहा, 'पर इस यमुना को मैं पहचान रहा हूँ।' 'क्या?' 'नहीं-नहीं, यह ठीक है, तारा ही है है 'मैंने इसे कितनी बार काशी में किशोरी के यहाँ देखा और मैं कह सकता हूँ कि यह उसकी दासी यमुना है; तुम्हारी तारा कदापि नहीं।' 'परन्तु आप उसको कैसे पहचानते! तारा मेरे घर में उत्पन्न हुई, पली और बढ़ी। कभी उसका और आपका सामना तो हुआ नहीं, आपकी आज्ञा भी ऐसी ही थी। ग्रहण में वह भूलकर लखनऊ गयी। वहाँ एक स्वयंसेवक उसे हरद्वार ले जा रहा था, मुझसे राह में भेंट हुई, मैं रेल से उतर पड़ा। मैं उसे न पहचानूँगा।' 'तो तुम्हारा कहना ठीक हो सकता है।' कहकर निरंजन ने सिर नीचा कर लिया। 'मैंने इसका स्वर, मुख, अवयव पहचान लिया, यह रामा की कन्या है!' भण्डारी ने भारी स्वर में कहा। निरंजन चुप था। वह विचार में पड़ गया। थोड़ी देर में बड़बड़ाते हुए उसने सिर उठाया-दोनों को बचाना होगा, दोनों ही-हे भगवान्! इतने में गोस्वामी कृष्णशरण का शब्द उसे सुनाई पड़ा, 'आप लोग चाहे जो समझें; पर में इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि यमुना हत्या कर सकती है! वह संसार में सताई हुई एक पवित्र आत्मा है, वह निर्दोष है! आप लोग देखेंगे कि उसे फाँसी न होगी।' आवेश में निरंजन उसके पास जाकर बोला, 'मैं उसकी पैरवी का सब व्यय दूँगा। यह लीजिए एक हजार के नोट हैं, घटने पर और भी दूँगा।' उपस्थित लोगों ने एक अपरिचित की इस उदारता पर धन्यवाद दिया। गोस्वामी कृष्णशरण हँस पड़े। उन्होंने कहा, 'मंगलदेव को बुलाना होगा, वही सब प्रबन्ध करेगा।' निरंजन उसी आश्रम का अतिथि हो गया और उसी जगह रहने लगा। गोस्वामी कृष्णशरण का उसके हृदय पर प्रभाव पड़ा। नित्य सत्संग होने लगा, प्रतिदिन एक-दूसरे के अधिकाधिक समीप होने लगे। मौलसिरी के नीचे शिलाखण्ड पर गोस्वामी कृष्णशरण और देवनिरंजन बैठे हुए बातें कर रहे हैं। निरंजन ने कहा, 'महात्मन्! आज मैं तृप्त हुआ, मेरी जिज्ञासा ने अपना अनन्य आश्रय खोज लिया। श्रीकृष्ण के इस कल्याण-मार्ग पर मेरा पूर्ण विश्वास हुआ।' 'आज तक जिस रूप में उन्हें देखता था, वह एकांगी था; किन्तु इस प्रेम-पथ का सुधार करना चाहिए। इसके लिए प्रयत्न करने की आज्ञा दीजिए।' 'प्रयत्न! निरंजन तुम भूल गये। भगवान् की महिमा स्वयं प्रचारित होगी। मैं तो, जो सुनना चाहता है उसे सुनाऊँगा, इससे अधिक कुछ करने का साहस मेरा नहीं!' 'किन्तु मेरी एक प्रार्थना है। संसार बधिर है, उसको चिल्लाकर सुनाना होगा; इसलिए भारतवर्ष में हुए उस प्राचीन महापर्व को लक्ष्य में रखकर भारत-संघ नाम से एक प्रचार-संस्था बना दी जाए!' 'संस्थाएँ विकृत हो जाती हैं। व्यक्तियों के स्वार्थ उसे कलुषित कर देते हैं, देवनिरंजन! तुम नहीं देखते कि भारत-भर में साधु-संस्थाओं की क्या...' 'निंरजन ने क्षण-भर मे अपनी जीवनी पढ़ने का उद्योग किया। फिर खीझकर उसने कहा, 'महात्मन्, फिर आपने इतने अनाथ स्त्री, बालक और वृद्धों का परिवार क्यों बना लिया है?' निंरजन की ओर देखते हुए क्षण-भर चुप रहकर गोस्वामी कृष्णशरण ने कहा, 'अपनी असावधानी तो मैं न कहूँगा निंरजन! एक दिन मंगलदेव की प्रार्थना से अपने विचारों को उद्घोषित करने के लिए मैंने इस कल्याण की व्यवस्था की थी। उसी दिन से मेरी टेकरी में भीड़ होने लगी। जिन्हें आवश्यकता है, दुख है, अभाव है, वे मेरे पास आने लगे। मैंने किसी को बुलाया नहीं। अब किसी को हटा भी नहीं सकता।' 'तब आप यह नहीं मानते कि संसार में मानसिक दुख से पीड़ित प्राणियों को इस संदेश से परिचित कराने की आवश्यकता है?' 'है, किन्तु मैं आडम्बर नहीं चाहता। व्यक्तिगत श्रद्धा से जितना जो कर सके, उतना ही पर्याप्त है।' 'किन्तु यह अब एक परिवार बन गया है, इसकी कोई निश्चित व्यवस्था करनी होगी।' निंरजन ने यहाँ का सब समाचार लिखते हुए किशोरी को यह भी लिखा था-'अपने और उसके पाप-चिह्न विजय का जीवन नहीं के बराबर है। हम दोनों को संतोष करना चाहिए और मेरी भी यही इच्छा है कि अब भगवद्भजन करूँ। मैं भारत-संघ के संगठन में लगा हूँ, विजय को खोजकर उसे और भी संकट में डालना होगा। तुम्हारे लिए भी संतोष को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं।' पत्र पाकर किशोरी खूब रोई। श्रीचन्द्र अपनी सारी कल्पनाओं पर पानी फिरते देखकर किशोरी की ही चापलूसी करने लगा। उसकी वह पंजाब वाली चन्दा अपनी लड़की को लेकर चली गयी, क्योंकि ब्याह होना असम्भव था।

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